नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है। इसका
का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में
भी मिलते हैं,
जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इस काल में मानव जंगलों
में स्वतंत्र विचरता था। धीरे-धीरे उसने समूह में पानी के स्रोतों और शिकार बहुल
क्षेत्र में टिक कर रहना आरंभ किया- उस समय उसकी सर्वप्रथम समस्या भोजन की होती
थी- जिसकी पूर्ति के बाद वह हर्षोल्लास के साथ उछल कूद कर आग के चारों ओर नृत्य
किया करते थे। ये मानव विपदाओं से भयभीत हो जाते थे- जिनके निराकरण हेतु इन्होंने
किसी अदृश्य दैविक शक्ति का अनुमान लगाया होगा तथा उसे प्रसन्न करने हेतु अनेकों
उपायों का सहारा लिया- इन उपायों में से मानव ने नृत्य को अराधना का प्रमुख साधन
बनाया।
इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त
आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त
मूर्तिया- हैं, जिनमें एक कांसे की बनी तन्वंगी की
मूर्ति है- जिसकी समीक्षा करने वाले विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि यह नृत्य की
भावभंगिमा से युक्त है। भारतीय नृत्य कला के इतिहास में- उत्खनन से प्राप्त यह
नृत्यांगना की मूर्ति- प्रथम मूल्यवान उपलब्धि है जो आज भी दिल्ली के राष्ट्रीय
संग्रहालय में रखी हुई है। हड़प्पा की खुदाई में भी एक काले पत्थर की नृत्यरत
मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके संबंध में पुरातत्वेत्ता मार्शल ने नर्तकी होने का
दावा किया है।
भारत में नृत्य की जड़ें
प्राचीन परंपराओं में है। इस विशाल उपमहाद्वीप में नृत्यों की विभिन्न विधाओं ने
जन्म लिया है। प्रत्येक विधा ने विशिष्ट समय व वातावरण के प्रभाव से आकार लिया
है। राष्ट्र शास्त्रीय नृत्य की कई विधाओं को पेश करता है, जिनमें से प्रत्येक का संबंध देश के विभिन्न भागों से है।
प्रत्येक विधा किसी विशिष्ट क्षेत्र अथवा व्यक्तियों के समूह के लोकाचार का
प्रतिनिधित्व करती है। भारत के कुछ प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य हैं –
भरतनाट्यम
इस नृत्य शैली की खास
विशेषताएं, नायक-नायिका प्रसंग पर आधारित पदम अथवा कविताएँ हैं।
भरत नाट्यम, भारत के प्रसिद्ध नृत्यों में से एक है तथा इसका संबंध
दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य से है। यह नाम "भरत" शब्द से लिया गया
तथा इसका संबंध नृत्यशास्त्र से है। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा, हिंदु देवकुल के महान त्रिदेवों में से प्रथम, नाट्य शास्त्र अथवा नृत्य विज्ञान हैं। इन्द्र व स्वर्ग
के अन्य देवताओं के अनुनय-विनय से ब्रह्मा इतना प्रभावित हुआ कि उसने नृत्य वेद
सृजित करने के लिए चारों वेदों का उपयोग किया। नाट्य वेद अथवा पंचम वेद, भरत व उसके अनुयाइयों को प्रदान किया गया जिन्होंने इस
विद्या का परिचय पृथ्वी के नश्वर मनुष्यों को दिया। अत: इसका नाम भरत नाट्यम
हुआ।
भरत नाट्यम में नृत्य के
तीन मूलभूत तत्वों को कुशलतापूर्वक शामिल किया गया है। ये हैं भाव अथवा मन:स्थिति, राग अथवा संगीत और स्वरमार्धुय और ताल अथवा काल समंजन। भरत
नाट्यम की तकनीक में, हाथ,
पैर,
मुख,
व शरीर संचालन के समन्वयन के 64 सिद्धांत हैं, जिनका निष्पादन नृत्य
पाठ्यक्रम के साथ किया जाता है।
भरत नाट्यम में जीवन के
तीन मूल तत्व – दर्शन शास्त्र, धर्म व विज्ञान हैं। यह
एक गतिशील व सांसारिक नृत्य शैली है, तथा इसकी प्राचीनता स्वयं
सिद्ध है। इसे सौंदर्य व सुरुचि संपन्नता का प्रतीक बताया जाना पूर्णत: संगत
है। वस्तुत: यह एक ऐसी परंपरा है, जिसमें पूर्ण समर्पण, सांसारिक बंधनों से विरक्ति तथा निष्पादनकर्ता का इसमें
चरमोत्कर्ष पर होना आवश्यक है। भरत नाट्यम तुलनात्मक रूप से नया नाम है। पहले
इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्जावूरनाट्यम के नामों से जाना जाता था।
भरतनाट्यम् के कुछ प्रमुख कलाकार- लीला सैमसन, मृणालिनी साराभाई इनका
अभी निधन हुआ है
, बैजयंतीमाला बाली , मालविका सरकार , यामिनी कृष्णमूर्ती , पद्म सुब्रह्मण्यम ,सोनल मान सिंह , , रुक्मिणी देवी अरुण्डेल
आदि
कथकली
केरल के दक्षिण - पश्चिमी
राज्य का एक समृद्ध और फलने फूलने वाला नृत्य कथकली यहां की परम्परा है। कथकली का
अर्थ है एक कथा का नाटक या एक नृत्य नाटिका। कथा का अर्थ है कहानी, यहां अभिनेता रामायण और महाभारत के महाग्रंथों और पुराणों
से लिए गए चरित्रों को अभिनय करते हैं। यह अत्यंत रंग बिरंगा नृत्य है। इसके
नर्तक उभरे हुए परिधानों,
फूलदार दुपट्टों, आभूषणों और मुकुट से सजे
होते हैं। वे उन विभिन्न भूमिकाओं को चित्रित करने के लिए सांकेतिक रूप से विशिष्ट
प्रकार का रूप धरते हैं, जो वैयक्तिक चरित्र के बजाए उस चरित्र के अधिक नजदीक होते
हैं।
विभिन्न विशेषताएं, मानव, देवता समान, दैत्य आदि को शानदार वेशभूषा और परिधानों के माध्यम से
प्रदर्शित किया जाता है। इस नृत्य का सबसे अधिक प्रभावशाली भाग यह है कि इसके
चरित्र कभी बोलते नहीं हैं,
केवल उनके हाथों के हाव भाव की उच्च विकसित भाषा तथा चेहरे
की अभिव्यक्ति होती है जो इस नाटिका के पाठ्य को दर्शकों के सामने प्रदर्शित करती
है। उनके चेहरे के छोटे और बड़े हाव भाव, भंवों की गति, नेत्रों का संचलन, गालों, नाक और ठोड़ी की अभिव्यक्ति पर बारीकी से काम किया जाता है
तथा एक कथकली अभिनेता - नर्तक द्वारा विभिन्न भावनाओं को प्रकट किया जाता है।
इसमें अधिकांशत: पुरुष ही महिलाओं की भूमिका निभाते हैं, जबकि अब कुछ समय से महिलाओं को कथकली में शामिल किया जाता
है।
वर्तमान समय का कथकली एक
नृत्य नाटिका की परम्परा है जो केरल के नाट्य कर्म की उच्च विशिष्ट शैली की
परम्परा के साथ शताब्दियों पहले विकसित हुआ था, विशेष
रूप से कुडियाट्टम। पारम्परिक रीति रिवाज जैसे थेयाम, मुडियाट्टम और केरल की मार्शल कलाएं नृत्य को वर्तमान स्वरूप
में लाने के लिए महत्व्पूर्ण भूमिका निभाती हैं।
कथक
कथक का नृत्य रूप 100 से अधिक घुंघरुओं को पैरों में बांध कर तालबद्ध पदचाप, विहंगम चक्कर द्वारा पहचाना जाता है और हिन्दु धार्मिक
कथाओं के अलावा पर्शियन और उर्दू कविता से ली गई विषयवस्तुओं का नाटकीय प्रस्तुतीकरण
किया जाता है। कथक का जन्म उत्तर में हुआ किन्तु पर्शियन और मुस्लिम प्रभाव से
यह मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहुंच गया।
कथक की शैली का जन्म
ब्राह्मण पुजारियों द्वारा हिन्दुओं की पारम्परिक पुन: गणना में निहित है, जिन्हें कथिक कहते थे, जो नाटकीय अंदाज में हाव
भावों का उपयोग करते थे। क्रमश: इसमें कथा कहने की शैली और अधिक विकसित हुई तथा एक
नृत्य रूप बन गया। उत्तर भारत में मुगलों के आने पर इस नृत्य को शाही दरबार में
ले जाया गया और इसका विकास ए परिष्कृत कलारूप में हुआ, जिसे मुगल शासकों का संरक्षण प्राप्त था और कथक ने वर्तमान
स्वरूप लिया। इस नृत्य में अब धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया गया।
शब्द कथक का उद्भव कथा
से हुआ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है कहानी कहना। पुराने समय में कथा वाचक
गानों के रूप में इसे बोलते और अपनी कथा को एक नया रूप देने के लिए नृत्य करते।
इससे कथा कलाक्षेपम और दक्षिण भारत में हरी कथा का रूप बना और यही उत्तर भारत में
कथक के रूप में जाना जाता है। लगभग 15वीं शताब्दी में इस नृत्य
परम्परा में मुगल नृत्य और संगीत के कारण बड़ा परिवर्तन आया। 16वीं शताब्दी के अंत तक कसे हुए चूड़ीदार पायजामे को कथक
नृत्य की वेशभूषा मान लिया गया।
इस नृत्य परम्परा के दो
प्रमुख घराने हैं, इन दोनों को उत्तर भारत के शहरों के नाम पर नाम दिया गया है
और इनमें से दोनों ही क्षेत्रीय राजाओं के संरक्षण में विस्तारित हुआ - लखनऊ
घराना और जयपुर घराना।
ओड़िसी
ओड़िसी को पुरातात्विक
साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित नृत्य रूपों में से एक माना जाता है।
ओड़िसा के पारम्परिक नृत्य, ओड़िसी का जन्म मंदिर
में नृत्य करने वाली देवदासियों के नृत्य से हुआ था। ओड़िसी नृत्य का उल्लेख
शिला लेखों में मिलता है,
इसे ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिला लेखों में दर्शाया गया है
साथ ही कोणार्क के सूर्य मंदिर के केन्द्रीय कक्ष में इसका उल्लेख मिलता है।
वर्ष 1950 में इस पूरे नृत्य रूप को एक नया रूप दिया गया, जिसके लिए अभिनय चंद्रिका और मंदिरों में पाए गए तराशे हुए
नृत्य की मुद्राएं धन्यवाद के पात्र हैं।
किसी अन्य भारतीय शास्त्रीय
नृत्य रूप के समान ओड़िसी के दो प्रमुख पक्ष हैं: नृत्य या गैर निरुपण नृत्य, जहां अंतरिक्ष और समय में शरीर की भंगिमाओं का उपयोग करते
हुए सजावटी पैटर्न सृजित किए जाते हैं। इसका एक अन्य रूप अभिनय है, जिसे सांकेतिक हाथ के हाव भाव और चेहरे की अभिव्यक्तियों
को कहानी या विषयवस्तु समझाने में उपयोग किया जाता है।
इसमें त्रिभंग पर ध्यान
केन्द्रित किया जाता है, जिसका अर्थ है शरीर को तीन भागों में बांटना, सिर,
शरीर और पैर; मुद्राएं और अभिव्यक्तियां
भरत नाट्यम के समान होती है। ओडिसी नृत्य में विष्णु के आठवें अवतार कृष्ण के
बारे में कथाएँ बताई जाती हैं। यह एक कोमल, कवितामय शास्त्री नृत्य
है जिसमें उड़ीसा के परिवेश तथा इसके सर्वाधिक लोकप्रिय देवता, भगवान जगन्नाथ की महिमा का गान किया जाता है।
मणिपुरी नृत्य
पूर्वोत्तर के मणिपुर
क्षेत्र से आया शास्त्रीय नृत्य मणिपुरी नृत्य है। मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य
नृत्य रूपों से भिन्न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक
प्रवाहित होती हैं। यह नृत्य रूप 18वीं शताब्दी में वैष्णव
सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ जो इसके शुरूआती रीति रिवाज और जादुई नृत्य रूपों
में से बना है। विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा
गीतगोविन्द की रचनाओं से आई विषयवस्तुएँ इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।
मणिपुर की मेतई जनजाति की
दंतकथाओं के अनुसार जब ईश्वर ने पृथ्वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी।
सात लैनूराह ने इस नव निर्मित गोलार्ध पर नृत्य किया, अपने पैरों से इसे मजबूत और चिकना बनाने के लिए इसे कोमलता
से दबाया। यह मेतई जागोई का उद्भव है। आज के समय तक जब मणिपुरी लोग नृत्य करते
हैं वे कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के
साथ रखते हैं। मूल भ्रांति और कहानियाँ अभी भी मेतई के पुजारियों या माइबिस द्वारा
माइबी के रूप में सुनाई जाती हैं जो मणिपुरी की जड़ हैं।
महिला "रास"
नृत्य राधा-कृष्ण की विषयवस्तु पर आधारित है जो बेले तथा एकल नृत्य का रूप है।
पुरुष "संकीर्तन" नृत्य मणिपुरी ढोलक की ताल पर पूरी शक्ति के साथ किया
जाता है।
मोहिनीअट्टम
मोहिनीअट्टम केरल की महिलाओं द्वारा किया जाने वाला अर्ध
शास्त्रीय नृत्य है जो कथकली से अधिक पुराना माना जाता है। साहित्यिक रूप से
नृत्य के बीच मुख्य माना जाने वाला जादुई मोहिनीअटट्म केरल के मंदिरों में
प्रमुखत: किया जाता था। यह देवदासी नृत्य विरासत का उत्तराधिकारी भी माना जाता है
जैसे कि भरत नाट्यम, कुचीपुडी और ओडीसी। इस शब्द मोहिनी का अर्थ है एक ऐसी
महिला जो देखने वालों का मन मोह लें या उनमें इच्छा उत्पन्न करें। यह भगवान
विष्णु की एक जानी मानी कहानी है कि जब उन्होंने दुग्ध सागर के मंथन के दौरान
लोगों को आकर्षित करने के लिए मोहिनी का रूप धारण किया था और भामासुर के विनाश की
कहानी इसके साथ जुड़ी हुई है। अत: यह सोचा गया है कि वैष्णव भक्तों ने इस नृत्य
रूप को मोहिनीअटट्म का नाम दिया।
मोहिनीअटट्म का प्रथम संदर्भ माजामंगलम नारायण नब्बूदिरी
द्वारा संकल्पित व्यवहार माला में पाया जाता है जो 16वीं शताब्दी ए डी में
रचा गया। 19वीं शताब्दी में स्वाति तिरुनाल, पूर्व त्रावण कोर के राजा
थे, जिन्होंने इस कला रूप को प्रोत्साहन और स्थिरीकरण देने के
लिए काफी प्रयास किए। स्वाति के पश्चात के समय में यद्यपि इस कला रूप में गिरावट
आई। किसी प्रकार यह कुछ प्रांतीय जमींदारों और उच्च वर्गीय लोगों के भोगवादी जीवन
की संतुष्टि के लिए कामवासना तक गिर गया। कवि वालाठोल ने इसे एक बार फिर नया जीवन
दिया और इसे केरल कला मंडलम के माध्यम से एक आधुनिक स्थान प्रदान किया, जिसकी
स्थापना उन्होंने 1903 में की थी। कलामंडलम कल्याणीमा, कलामंडलम की प्रथम नृत्य
शिक्षिका थीं जो इस प्राचीन कला रूप को एक नया जीवन देने में सफल रहीं। उनके साथ
कृष्णा पणीकर, माधवी अम्मा और चिन्नम्मू अम्मा ने इस लुप्त होती परम्परा
की अंतिम कडियां जोड़ी जो कलामंडल के अनुशासन में पोषित अन्य आकांक्षी थीं।
मूलभूत नृत्य ताल चार प्रकार के होते हैं: तगानम, जगानम,
धगानम
और सामीश्रम। ये नाम वैट्टारी नामक वर्गीकरण से उत्पन्न हुए हैं।
कुचीपुडी
कुचीपुडी आंध्र प्रदेश की
एक स्वदेशी नृत्य शैली है जिसने इसी नाम के गांव में जन्म लिया और पनपी, इसका मूल नाम कुचेलापुरी या कुचेलापुरम था, जो कृष्णा जिले का एक कस्बा है। अपने मूल से ही यह तीसरी
शताब्दी बीसी में अपने धुंधले अवशेष छोड़ आई है, यह
इस क्षेत्र की एक निरंतर और जीवित नृत्य परम्परा है। कुचीपुडी
कला का जन्म अधिकांश
भारतीय शास्त्रीय नृत्यों के समान धर्मों के साथ जुड़ा हुआ है। एक लम्बे समय से
यह कला केवल मंदिरों में और वह भी आंध्र प्रदेश के कुछ मंदिरों में वार्षिक उत्सव
के अवसर पर प्रदर्शित की जाती थी।
परम्परा के अनुसार
कुचीपुडी नृत्य मूलत: केवल पुरुषों द्वारा किया जाता था और वह भी केवल ब्राह्मण
समुदाय के पुरुषों द्वारा। ये ब्राह्मण परिवार कुचीपुडी के भागवतथालू कहलाते थे।
कुचीपुडी के भागवतथालू ब्राह्मणों का पहला समूह 1502 ए.
डी. निर्मित किया गया था। उनके कार्यक्रम देवताओं को समर्पित किए जाते थे तथा उन्होंने
अपने समूहों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया।
महिला नृत्यांगनाओं के शोषण के कारण नृत्य कला के ह्रास
के युग में एक सिद्ध पुरुष सिद्धेंद्र योगी ने नृत्य को पुन: परिभाषित किया।
कुचीपुडी के पंद्रह ब्राह्मण परिवारों ने पांच शताब्दियों से अधिक समय तक परम्परा
को आगे बढ़ाया है। प्रतिष्ठित गुरु जैसे वेदांतम लक्ष्मी नारायण, चिंता कृष्णा मूर्ति और तादेपल्ली पेराया ने महिलाओं को
इसमें शामिल कर नृत्य को और समृद्ध बनाया है। डॉ॰ वेमापति चिन्ना सत्यम ने
इसमें कई नृत्य नाटिकाओं को जोड़ा और कई एकल प्रदर्शनों की नृत्य संरचना तैयार
की और इस प्रकार नृत्य रूप के क्षितिज को व्यापक बनाया। यह परम्परा तब से महान
बनी हुई है जब पुरुष ही महिलाओं का अभिनय करते थे और अब महिलाएं पुरुषों का अभिनय
करने लगी हैं।
कुटियाट्टम
कटियाट्टम केरल के शास्त्रीय
रंग मंच का अद्वितीय रूप है जो अत्यंत मनमोहक है। यह 2000 वर्ष पहले के समय से किया जाता था और यह संस्कृत के
नाटकों का अभिनय है और यह भारत का सबसे पुराना रंग मंच है, जिसे निरंतर प्रदर्शित किया जाता है।
राजा कुल शेखर वर्मन ने 10वीं शताब्दी ए. डी. में कुटियाट्टम में सुधार किया और रूप
संस्कृत में प्रदर्शन की परम्परा को जारी रखे हुए है। प्राकृत भाषा और मलयालम
अपने प्राचीन रूपों में इस माध्यम को जीवित रखे हैं। इस भण्डार में भास, हर्ष और महेन्द्र विक्रम पल्लव द्वारा दिखे गए नाटक शामिल
हैं।
पारम्परिक रूप से चकयार
जाति के सदस्य इसमें अभिनय करते हैं और यह इस समूह को समर्पण ही है जो शताब्दियों
से कुटियाट्टम के संरक्षण का उत्तरदायी है। द्रुमरों की उप जाति नाम्बियार को इस
रंग मंच के साथ निझावू के अभिनेता के रूप में जोड़ा जाता है (मटके के आकार का एक
बड़ा ड्रम कुटियाट्टम की विशेषता है)। नाम्बियार समुदाय की महिलाएं इसमें महिला
चरित्रों का अभिनय करती है और बेल धातु की घंटियां बजती है। जबकि अन्य समुदायों
के लोग इस नाट्य कला का अध्ययन करते हैं और मंच पर प्रदर्शन में भाग ले सकते हैं, किन्तु वे मंदिरों में प्रदर्शन नहीं करते।
जटिल हाव भाव की भाषा, मंत्रोच्चार, चेहरे और आंखों की अतिशय
अभिव्यक्ति विस्तृत मुकुट और चेहरे की सज्जा के साथ मिलकर कुटियाट्टम का अभिनय
बनाते हैं। इसमें मिझावू ड्रमों द्वारा, छोटी घंटियों और इडक्का
(एक सीधे गिलास के आकार का ड्रम) से तथा कुझाल (फूंक कर बजाने वाला एक वाद्य) और
शंख से संगीत दिया जाता है।
भारत का नाम आते ही सामने
आ जाता है विविधताओं से भरा देश. भारत की संस्कृति जितनी
ज्यादा रोचक है, उतनी दुनियां के किसी देश की नहीं है. विविधताओं से भरे हमारे देश का हर रंग निराला है. यहाँ की संस्कृति दुनिया की तमाम संस्कृतियों में सबसे
ज्यादा उन्नत है. यहाँ की हर एक बात निराली है. यहाँ
की संस्कृति, यहाँ के सभी धर्मं, खान-पान,
रहन-सहन,
लेकिन जो सबसे ज्यादा अलग है, वो
है भारत में मनाये जाने वाले त्यौहार, उत्सव या पर्व, और इन उत्सवो और त्योहारों पर किये जाने वाले भारतीय लोक
नृत्य, जो भारत की संस्कृति को और अधिक रोचक बनाते है.
भारत एक ऐसा देश है, जहां सभी अवसरों पर विभिन्न प्रकार के नृत्य किये जाते है. पुरे भारत देश में बहुत समय पहले से उत्सव और त्योहारों पर
नृत्य करने की परम्परा चली आ रही हैं. साथ ही भारत के प्रत्येक
राज्य के अपने कुछ लोक नृत्य है. लोक नृत्य प्रदेश की
संस्कृति को बयां करते है.
ऐसे नृत्य जो प्रान्त, धर्मं , जाति या स्थान के आधार पर भिन्नता रखते है वे लोक नृत्य
होते है. एक प्रदेश के एक से अधिक लोक नृत्य भी हो सकते है .
S
सामान्य भाषा में कहे, तो ऐसा नृत्य जो लोगो में या समुदाय में प्रिय हो, वह लोक नृत्य कहलाता है.
मध्य प्रदेश के लोक नृत्य
पंडवानी
पंडवानी
नृत्य मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में किया जाता है .यह एकल लोक नृत्य है. इसमें गायन एवं नृत्य एक ही व्यक्ति के द्वारा किया जाता है. इसमें मुख्य रूप से पांड्वो पर आधारित घटनाओं का चित्रण
किया जाता है.
गणगौर
नृत्य
मध्यप्रदेश
के निमाड़ में क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय नृत्य है गणगौर. चैत्र मास की नवरात्रि में गणगौर नृत्य किया जाता है. यह पर्व माँ गौरी और शिव की उपासना के लिए होता है. इसमें रथ सर पर रख कर नृत्य किया जाता है.
असम के लोक नृत्य
बिहू
भारत के असम राज्य का लोक
नृत्य है बिहू. बिहू नृत्य असम की कछारी जनजाति के द्वारा किया जाता है. बिहू नृत्य फसल की कटाई के दौरान ही किया जाता है. यह नृत्य साल में तीन बार मनाया जाता है. बिहू नृत्य की वेशभूषा बहुत ही अधिक साधारण होती है, इसे करते समय पारम्परिक वस्त्र जैसे धोती, गमछा आदि पहना जाता है.
उत्तर प्रदेश के लोक नृत्य
नौटंकी नृत्य
नौटंकी नृत्य को छंद, दोहा, हरी गीतिका, कव्वाली , गजल आदि के द्वारा
प्रस्तुत किया जाता है. इसमें गायन, अभिनय, नृत्य आदि कई सारी विधाएं शामिल रहती है. यह बहुत ही रोचक नृत्य होता है. भारत के उत्तर प्रदेश में किया जाने वाला नौटंकी लोक नृत्य प्राचीनकाल
से ही प्रसिद्ध है. नौटंकी में बहुत से रस शामिल रहते है जैसे हास्य रस, वीर रस आदि. नौटंकी में प्रस्तुत की
जाने वाली कथा किसी के जीवन पर आधारित भी हो सकती है. इसकी समयावधी बहुत कम होती है, जिसमे गाना, नाचना शामिल होता है. नौटंकी में कई सारे वाद्य नृत्य भी उपयोग किये जाते है.
गुजरात के लोक नृत्य
गरबा
गरबा गुजरात का लोक नृत्य
है, लेकिन यह भारत के कई हिस्सों में किया जाता है, यह नवरात्री के अवसर पर किया जाता है. गरबा नृत्य के द्वारा माँ दुर्गा की आराधना की जाती है. गरबा नृत्य नवरात्री में पुरे भारत में किया जाता है.
राजस्थान के लोक नृत्य
कालबेलिया नृत्य
कला
और संस्कृति से भरपूर यह प्रदेश है. यहाँ पर कालबेलिया नाम की
जनजाति होती है, जिनके द्वारा किया गया नृत्य कालबेलिया नृत्य कहलाता है.
घुमर
घुमर नृत्य राजस्थान में
प्रत्येक त्यौहार, उत्सव, समारोह में प्रमुखता से
किया जाने वाला नृत्य है.
इसे स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है. महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले लम्बे घाघरे इस नृत्य का
विशेष आकर्षण होते है.
तेरहताली नृत्य
यह नृत्य महिलों द्वारा
प्रस्तुत किया जाता है एवं पुरुषो के द्वारा भजन गाये जाते है. इस नृत्य में महिलाएं अपने शरीर पर मंजीरो को बांधती है एवं
गीत की लय के साथ उन्हें बजाती है.
भवाई नृत्य
राजस्थान
के उदयपुर क्षेत्र में किया जाने वाला भवाई नृत्य बहुत अधिक लोकप्रिय है. इस नृत्य में मटकों को सर पर रख कर नृत्य किया जाता है. इन मटकों की संख्या 8 से 10 भी हो सकती है. इस नृत्य की खासियत यह है
की नृत्य करते समय नर्तकी किसी गिलास या थाली के कटाव पर या तलवार पर खड़े हो कर
नृत्य करती है.
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